सोमवार, 28 अगस्त 2023

रक्षा बंधन 2023 बुधवार, 30 अगस्त

 रक्षाबन्धन भारतीय धर्म संस्कृति के अनुसार रक्षाबन्धन[ का त्योहार श्रावण माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह त्योहार भाई-बहन को स्नेह की डोर में बांधता है। इस दिन बहन अपने भाई के मस्तक पर टीका लगाकर रक्षा का बन्धन बांधती है, जिसे राखी कहते हैं। यह एक हिन्दू व जैन त्योहार है जो प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। श्रावण (सावन) में मनाये जाने के कारण इसे श्रावणी (सावनी) या सलूनो भी कहते हैं।[3] रक्षाबन्धन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्त्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, तथा सोने या चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की हो सकती है। रक्षाबंधन भाई बहन के रिश्ते का प्रसिद्ध त्योहार है, रक्षा का मतलब सुरक्षा और बंधन का मतलब बाध्य है। रक्षाबंधन के दिन बहने भगवान से अपने भाईयों की तरक्की के लिए भगवान से प्रार्थना करती है। राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बाँधती हैं परन्तु ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित सम्बंधियों (जैसे पुत्री द्वारा पिता को) भी बाँधी जाती है। कभी-कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता या प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी राखी बाँधी जाती है। रक्षाबंधन के दिन भाई अपने बहन को राखी के बदले कुछ उपहार देते है।

हिन्दू धर्म के सभी धार्मिक अनुष्ठानों में रक्षासूत्र बाँधते समय कर्मकाण्डी पण्डित या आचार्य संस्कृत में एक श्लोक का उच्चारण करते हैं, जिसमें रक्षाबन्धन का सम्बन्ध राजा बलि से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। भविष्यपुराण के अनुसार इन्द्राणी द्वारा निर्मित रक्षासूत्र को देवगुरु बृहस्पति ने इन्द्र के हाथों बांधते हुए निम्नलिखित स्वस्तिवाचन किया (यह श्लोक रक्षाबन्धन का अभीष्ट मन्त्र है)

येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल:।

तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥

इस श्लोक का हिन्दी भावार्थ है- "जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बाँधता हूँ। हे रक्षे (राखी)! तुम अडिग रहना (तू अपने संकल्प से कभी भी विचलित न हो।)"

प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर लड़कियाँ और महिलाएँ पूजा की थाली सजाती हैं। थाली में राखी के साथ रोली या हल्दी, चावल, दीपक, मिठाई और कुछ पैसे भी होते हैं। लड़के और पुरुष तैयार होकर टीका करवाने के लिये पूजा या किसी उपयुक्त स्थान पर बैठते हैं। पहले अभीष्ट देवता की पूजा की जाती है, इसके बाद रोली या हल्दी से भाई का टीका करके चावल को टीके पर लगाया जाता है और सिर पर छिड़का जाता है, उसकी आरती उतारी जाती है, दाहिनी कलाई पर राखी बाँधी जाती है और पैसों से न्यौछावर करके उन्हें गरीबों में बाँट दिया जाता है। भारत के अनेक प्रान्तों में भाई के कान के ऊपर भोजली या भुजरियाँ लगाने की प्रथा भी है। भाई बहन को उपहार या धन देता है। इस प्रकार रक्षाबन्धन के अनुष्ठान को पूरा करने के बाद ही भोजन किया जाता है। प्रत्येक पर्व की तरह उपहारों और खाने-पीने के विशेष पकवानों का महत्त्व रक्षाबन्धन में भी होता है। आमतौर पर दोपहर का भोजन महत्त्वपूर्ण होता है और रक्षाबन्धन का अनुष्ठान पूरा होने तक बहनों द्वारा व्रत रखने की भी परम्परा है। पुरोहित तथा आचार्य सुबह-सुबह यजमानों के घर पहुँचकर उन्हें राखी बाँधते हैं और बदले में धन, वस्त्र और भोजन आदि प्राप्त करते हैं। यह पर्व भारतीय समाज में इतनी व्यापकता और गहराई से समाया हुआ है कि इसका सामाजिक महत्त्व तो है ही, धर्म, पुराण, इतिहास, साहित्य और फ़िल्में भी इससे अछूते नहीं हैं।

सामाजिक प्रसंग


भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को राखी बाँधते बच्चे।

नेपाल के पहाड़ी इलाकों में ब्राह्मण एवं क्षेत्रीय समुदाय में रक्षा बन्धन गुरू और भागिनेय के हाथ से बाँधा जाता है। लेकिन दक्षिण सीमा में रहने वाले भारतीय मूल के नेपाली भारतीयों की तरह बहन से राखी बँधवाते हैं।


इस दिन बहनें अपने भाई के दायें हाथ पर राखी बाँधकर उसके माथे पर तिलक करती हैं और उसकी दीर्घ आयु की कामना करती हैं। बदले में भाई उनकी रक्षा का वचन देता है। ऐसा माना जाता है कि राखी के रंगबिरंगे धागे भाई-बहन के प्यार के बन्धन को मज़बूत करते है। भाई बहन एक दूसरे को मिठाई खिलाते हैं और सुख-दुख में साथ रहने का विश्वास दिलाते हैं। यह एक ऐसा पावन पर्व है जो भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को पूरा आदर और सम्मान देता है।


सगे भाई बहन के अतिरिक्त अनेक भावनात्मक रिश्ते भी इस पर्व से बँधे होते हैं जो धर्म, जाति और देश की सीमाओं से परे हैं। रक्षाबन्धन का पर्व भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री के निवास पर भी मनाया जाता है। जहाँ छोटे छोटे बच्चे जाकर उन्हें राखी बाँधते हैं। रक्षाबन्धन आत्मीयता और स्नेह के बन्धन से रिश्तों को मज़बूती प्रदान करने का पर्व है। यही कारण है कि इस अवसर पर न केवल बहन भाई को ही अपितु अन्य सम्बन्धों में भी रक्षा (या राखी) बाँधने का प्रचलन है। गुरु शिष्य को रक्षासूत्र बाँधता है तो शिष्य गुरु को। भारत में प्राचीन काल में जब स्नातक अपनी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात गुरुकुल से विदा लेता था तो वह आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उसे रक्षासूत्र बाँधता था जबकि आचार्य अपने विद्यार्थी को इस कामना के साथ रक्षासूत्र बाँधता था कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह अपने भावी जीवन में उसका समुचित ढंग से प्रयोग करे ताकि वह अपने ज्ञान के साथ-साथ आचार्य की गरिमा की रक्षा करने में भी सफल हो। इसी परम्परा के अनुरूप आज भी किसी धार्मिक विधि विधान से पूर्व पुरोहित यजमान को रक्षासूत्र बाँधता है और यजमान पुरोहित को। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के सम्मान की रक्षा करने के लिये परस्पर एक दूसरे को अपने बन्धन में बाँधते हैं।


रक्षाबन्धन पर्व सामाजिक और पारिवारिक एकबद्धता या एकसूत्रता का सांस्कृतिक उपाय रहा है। विवाह के बाद बहन पराये घर में चली जाती है। इस बहाने प्रतिवर्ष अपने सगे ही नहीं अपितु दूरदराज के रिश्तों के भाइयों तक को उनके घर जाकर राखी बाँधती है और इस प्रकार अपने रिश्तों का नवीनीकरण करती रहती है। दो परिवारों का और कुलों का पारस्परिक योग (मिलन) होता है। समाज के विभिन्न वर्गों के बीच भी एकसूत्रता के रूप में इस पर्व का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार जो कड़ी टूट गयी है उसे फिर से जागृत किया जा सकता है।


रक्षाबन्धन के अवसर पर कुछ विशेष पकवान भी बनाये जाते हैं जैसे घेवर, शकरपारे, नमकपारे और घुघनी। घेवर सावन का विशेष मिष्ठान्न है यह केवल हलवाई ही बनाते हैं जबकि शकरपारे और नमकपारे आमतौर पर घर में ही बनाये जाते हैं। घुघनी बनाने के लिये काले चने को उबालकर चटपटा छौंका जाता है। इसको पूरी और दही के साथ खाते हैं। हलवा और खीर भी इस पर्व के लोकप्रिय पकवान हैं।



सोमवार, 21 अगस्त 2023

काल भैरव अष्टक

 भगवान भैरव शिव के स्वरूप हैं। वे कलियुग की बाधाओं का शीघ्र निवारण करने वाले देवता माने जाते हैं। खासतौर से प्रेत व तांत्रिक बाधा के दोष उनके पूजन से दूर हो जाते हैं। संतान की दीर्घायु हो या गृहस्वामी का स्वास्थ्य, भगवान भैरव स्मरण और पूजन मात्र से उनके कष्टों को दूर कर देते हैं।भगवान भैरव के पूजन से राहु-केतु शांत हो जाते हैं। उनके पूजन में भैरव अष्टक और भैरव कवच का पाठ जरूर करना चाहिए। इससे शीघ्र फल मिलता है। साथ ही तांत्रिक व प्रेत बाधा का संकट टल जाता है।

काल भैरव अष्टकं

काल भैरव अष्टक

देवराजसेव्यमानपावनांघ्रिपङ्कजं व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम् ।
नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ १॥

भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनम् ।
कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ २॥

शूलटंकपाशदण्डपाणिमादिकारणं श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम् ।
भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ३॥

भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहम् ।
विनिक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥ ४॥

धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशनं कर्मपाशमोचकं सुशर्मधायकं विभुम् ।
स्वर्णवर्णशेषपाशशोभितांगमण्डलं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ५॥

रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरंजनम् ।
मृत्युदर्पनाशनं करालदंष्ट्रमोक्षणं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ६॥

अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसंततिं दृष्टिपात्तनष्टपापजालमुग्रशासनम् ।
अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकाधरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ७॥

भूतसंघनायकं विशालकीर्तिदायकं काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम् ।
नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ८॥

॥ फल श्रुति॥

कालभैरवाष्टकं पठंति ये मनोहरं ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनम् ।
शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनं प्रयान्ति कालभैरवांघ्रिसन्निधिं नरा ध्रुवम् ॥

॥इति कालभैरवाष्टकम् संपूर्णम् ॥

शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

श्रीदुर्गासप्तशती - द्वितीय अध्याय संस्कृत में

 


देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध

॥ विनियोगः॥

ॐ मध्यमचरित्रस्य विष्णुर्ऋषिः, महालक्ष्मीर्देवता, उष्णिक् छन्दः,
शाकम्भरी शक्तिः, दुर्गा बीजम्, वायुस्तत्त्वम्, यजुर्वेदः स्वरूपम्,
श्रीमहालक्ष्मीप्रीत्यर्थं मध्यमचरित्रजपे विनियोगः।

॥ध्यानम्॥

ॐ अक्षस्रक्‌परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां
दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां
सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥

"ॐ ह्रीं" ऋषिरुवाच॥१॥

देवासुरमभूद्युद्धं पूर्णमब्दशतं पुरा।
महिषेऽसुराणामधिपे देवानां च पुरन्दरे॥२॥

तत्रासुरैर्महावीर्यैर्देवसैन्यं पराजितम्।
जित्वा च सकलान् देवानिन्द्रोऽभून्महिषासुरः॥३॥


ततः पराजिता देवाः पद्मयोनिं प्रजापतिम्।
पुरस्कृत्य गतास्तत्र यत्रेशगरुडध्वजौ॥४॥

यथावृत्तं तयोस्तद्वन्महिषासुरचेष्टितम्।
त्रिदशाः कथयामासुर्देवाभिभवविस्तरम्॥५॥

सूर्येन्द्राग्न्यनिलेन्दूनां यमस्य वरुणस्य च।
अन्येषां चाधिकारान् स स्वयमेवाधितिष्ठति॥६॥

स्वर्गान्निराकृताः सर्वे तेन देवगणा भुवि।
विचरन्ति यथा मर्त्या महिषेण दुरात्मना॥७॥

एतद्वः कथितं सर्वममरारिविचेष्टितम्।
शरणं वः प्रपन्नाः स्मो वधस्तस्य विचिन्त्यताम्॥८॥

इत्थं निशम्य देवानां वचांसि मधुसूदनः।
चकार कोपं शम्भुश्च भ्रुकुटीकुटिलाननौ॥९॥

ततोऽतिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वदनात्ततः।
निश्‍चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शंकरस्य च॥१०॥

अन्येषां चैव देवानां शक्रादीनां शरीरतः।
निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत॥११॥

अतीव तेजसः कूटं ज्वलन्तमिव पर्वतम्।
ददृशुस्ते सुरास्तत्र ज्वालाव्याप्तदिगन्तरम्॥१२॥

अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम्।
एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा॥१३॥

यदभूच्छाम्भवं तेजस्तेनाजायत तन्मुखम्।
याम्येन चाभवन् केशा बाहवो विष्णुतेजसा॥१४॥

सौम्येन स्तनयोर्युग्मं मध्यं चैन्द्रेण चाभवत्।
वारुणेन च जङ्‍घोरू नितम्बस्तेजसा भुवः॥१५॥

ब्रह्मणस्तेजसा पादौ तदङ्‌गुल्योऽर्कतेजसा।
वसूनां च कराङ्‌गुल्यः कौबेरेण च नासिका॥१६॥

तस्यास्तु दन्ताः सम्भूताः प्राजापत्येन तेजसा।
नयनत्रितयं जज्ञे तथा पावकतेजसा॥१७॥

भ्रुवौ च संध्ययोस्तेजः श्रवणावनिलस्य च।
अन्येषां चैव देवानां सम्भवस्तेजसां शिवा॥१८॥

ततः समस्तदेवानां तेजोराशिसमुद्भवाम्।
तां विलोक्य मुदं प्रापुरमरा महिषार्दिताः॥१९॥

शूलं शूलाद्विनिष्कृष्य ददौ तस्यै पिनाकधृक्।
चक्रं च दत्तवान् कृष्णः समुत्पाद्य स्वचक्रतः॥२०॥

शङ्‌खं च वरुणः शक्तिं ददौ तस्यै हुताशनः।
मारुतो दत्तवांश्‍चापं बाणपूर्णे तथेषुधी॥२१॥

वज्रमिन्द्रः समुत्पाद्य कुलिशादमराधिपः।
ददौ तस्यै सहस्राक्षो घण्टामैरावताद् गजात्॥२२॥

कालदण्डाद्यमो दण्डं पाशं चाम्बुपतिर्ददौ।
प्रजापतिश्‍चाक्षमालां ददौ ब्रह्मा कमण्डलुम्॥२३॥

समस्तरोमकूपेषु निजरश्मीन् दिवाकरः।
कालश्‍च दत्तवान् खड्‌गं तस्याश्‍चर्म च निर्मलम्॥२४॥

क्षीरोदश्‍चामलं हारमजरे च तथाम्बरे।
चूडामणिं तथा दिव्यं कुण्डले कटकानि च॥२५॥

अर्धचन्द्रं तथा शुभ्रं केयूरान् सर्वबाहुषु।
नूपुरौ विमलौ तद्वद् ग्रैवेयकमनुत्तमम्॥२६॥

अङ्‌गुलीयकरत्‍नानि समस्तास्वङ्‌गुलीषु च।
विश्‍वकर्मा ददौ तस्यै परशुं चातिनिर्मलम्॥२७॥

अस्त्राण्यनेकरूपाणि तथाभेद्यं च दंशनम्।
अम्लानपङ्‌कजां मालां शिरस्युरसि चापराम्॥२८॥

अददज्जलधिस्तस्यै पङ्‌कजं चातिशोभनम्।
हिमवा‍न् वाहनं सिंहं रत्‍नानि विविधानि च॥२९॥

ददावशून्यं सुरया पानपात्रं धनाधिपः।
शेषश्‍च सर्वनागेशो महामणिविभूषितम्॥३०॥

नागहारं ददौ तस्यै धत्ते यः पृथिवीमिमाम्॥
अन्यैरपि सुरैर्देवी भूषणैरायुधैस्तथा॥३१॥

सम्मानिता ननादोच्चैः साट्टहासं मुहुर्मुहुः।
तस्या नादेन घोरेण कृत्स्नमापूरितं 

अमायतातिमहता प्रतिशब्दो महानभूत्।
चुक्षुभुः सकला लोकाः समुद्राश्‍च चकम्पिरे॥३३॥

चचाल वसुधा चेलुः सकलाश्‍च महीधराः।
जयेति देवाश्‍च मुदा तामूचुः सिंहवाहिनीम्॥३४॥

तुष्टुवुर्मुनयश्‍चैनां भक्तिनम्रात्ममूर्तयः।
दृष्ट्‌वा समस्तं संक्षुब्धं त्रैलोक्यममरारयः॥३५॥

सन्नद्धाखिलसैन्यास्ते समुत्तस्थुरुदायुधाः।
आः किमेतदिति क्रोधादाभाष्य महिषासुरः॥३६॥

अभ्यधावत तं शब्दमशेषैरसुरैर्वृतः।
स ददर्श ततो देवीं व्याप्तलोकत्रयां त्विषा॥३७॥

पादाक्रान्त्या नतभुवं किरीटोल्लिखिताम्बराम्।
क्षोभिताशेषपातालां धनुर्ज्यानिःस्वनेन ताम्॥३८॥

दिशो भुजसहस्रेण समन्ताद् व्याप्य संस्थिताम्।
ततः प्रववृते युद्धं तया देव्या सुरद्विषाम्॥३९॥

शस्त्रास्त्रैर्बहुधा मुक्तैरादीपितदिगन्तरम्।
महिषासुरसेनानीश्‍चिक्षुराख्यो महासुरः॥४०॥

युयुधे चामरश्‍चान्यैश्‍चतुरङ्‌गबलान्वितः।
रथानामयुतैः षड्‌भिरुदग्राख्यो महासुरः॥४१॥

अयुध्यतायुतानां च सहस्रेण महाहनुः।
पञ्चाशद्‌भिश्‍च नियुतैरसिलोमा महासुरः॥४२॥

अयुतानां शतैः षड्‌भिर्बाष्कलो युयुधे रणे।
गजवाजिसहस्रौघैरनेकैः परिवारितः॥४३॥

वृतो रथानां कोट्या च युद्धे तस्मिन्नयुध्यत।
बिडालाख्योऽयुतानां च पञ्चाशद्भिरथायुतैः॥४४॥

युयुधे संयुगे तत्र रथानां परिवारितः।
अन्ये च तत्रायुतशो रथनागहयैर्वृताः॥४५॥

युयुधुः संयुगे देव्या सह तत्र महासुराः
कोटिकोटिसहस्रैस्तु रथानां दन्तिनां तथा॥४६॥

हयानां च वृतो युद्धे तत्राभून्महिषासुरः।
तोमरैर्भिन्दिपालैश्‍च शक्तिभिर्मुसलैस्तथा॥४७॥

युयुधुः संयुगे देव्या खड्‌गैः परशुपट्टिशैः।
केचिच्च चिक्षिपुः शक्तीः केचित्पाशांस्तथापरे॥४८॥

देवीं खड्‍गप्रहारैस्तु ते तां हन्तुं प्रचक्रमुः।
सापि देवी ततस्तानि शस्त्राण्यस्त्राणि चण्डिका॥४९॥

लीलयैव प्रचिच्छेद निजशस्त्रास्त्रवर्षिणी।
अनायस्तानना देवी स्तूयमाना सुरर्षिभिः॥५०॥

मुमोचासुरदेहेषु शस्त्राण्यस्त्राणि चेश्‍वरी।
सोऽपि क्रुद्धो धुतसटो देव्या वाहनकेशरी॥५१॥

चचारासुरसैन्येषु वनेष्विव हुताशनः।
निःश्‍वासान् मुमुचे यांश्च युध्यमाना रणेऽम्बिका॥५२॥

त एव सद्यः सम्भूता गणाः शतसहस्रशः।
युयुधुस्ते परशुभिर्भिन्दिपालासिपट्टिशैः॥५३॥

नाशयन्तोऽसुरगणान् देवीशक्‍त्युपबृंहिताः।
अवादयन्त पटहान् गणाः शङ्‌खांस्तथापरे॥५४॥

मृदङ्‌गांश्‍च तथैवान्ये तस्मिन् युद्धमहोत्सवे।
ततो देवी त्रिशूलेन गदया शक्तिवृष्टिभिः॥५५॥

खड्‌गादिभिश्‍च शतशो निजघान महासुरान्।
पातयामास चैवान्यान् घण्टास्वनविमोहितान्॥५६॥

असुरान् भुवि पाशेन बद्‌ध्वा चान्यानकर्षयत्।
केचिद् द्विधा कृतास्तीक्ष्णैः खड्‌गपातैस्तथापरे॥५७॥

विपोथिता निपातेन गदया भुवि शेरते।
वेमुश्‍च केचिद्रुधिरं मुसलेन भृशं हताः॥५८॥

केचिन्निपतिता भूमौ भिन्नाः शूलेन वक्षसि।
निरन्तराः शरौघेण कृताः केचिद्रणाजिरे॥५९॥

श्येनानुकारिणः प्राणान् मुमुचुस्त्रिदशार्दनाः।
केषांचिद् बाहवश्छिन्नाश्छिन्नग्रीवास्तथापरे॥६०॥

शिरांसि पेतुरन्येषामन्ये मध्ये विदारिताः।
विच्छिन्नजङ्‌घास्त्वपरे पेतुरुर्व्यां महासुराः॥६१॥

एकबाह्वक्षिचरणाः केचिद्देव्या द्विधा कृताः।
छिन्नेऽपि चान्ये शिरसि पतिताः पुनरुत्थिताः॥६२॥

कबन्धा युयुधुर्देव्या गृहीतपरमायुधाः।
ननृतुश्‍चापरे तत्र युद्धे तूर्यलयाश्रिताः॥६३॥

कबन्धाश्छिन्नशिरसः खड्‌गशक्त्यृष्टिपाणयः।
तिष्ठ तिष्ठेति भाषन्तो देवीमन्ये महासुराः॥६४॥

पातितै रथनागाश्‍वैरसुरैश्‍च वसुन्धरा।
अगम्या साभवत्तत्र यत्राभूत्स महारणः॥६५॥

शोणितौघा महानद्यः सद्यस्तत्र प्रसुस्रुवुः।
मध्ये चासुरसैन्यस्य वारणासुरवाजिनाम्॥६६॥

क्षणेन तन्महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका।
निन्ये क्षयं यथा वह्निस्तृणदारुमहाचयम्॥६७॥

स च सिंहो महानादमुत्सृजन्धुतकेसरः।
शरीरेभ्योऽमरारीणामसूनिव विचिन्वति॥६८॥

देव्या गणैश्‍च तैस्तत्र कृतं युद्धं महासुरैः।
यथैषां तुतुषुर्देवाः पुष्पवृष्टिमुचो दिवि॥ॐ॥६९॥

॥ श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये महिषासुरसैन्यवधो नाम द्वितीयोऽध्यायः सम्पूर्णं ॥

बुधवार, 16 अगस्त 2023

श्रीदुर्गासप्तशती - प्रथम अध्याय संस्कृत में

 

श्रीदुर्गासप्तशती - प्रथम अध्याय संस्कृत में

मेधा ऋषि का राजा सुरथ और समाधि को भगवती की महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वध का प्रसंग सुनाना

॥ विनियोगः॥

ॐ प्रथमचरित्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, महाकाली देवता, गायत्री छन्दः,
नन्दा शक्तिः, रक्तदन्तिका बीजम्, अग्निस्तत्त्वम्,
ऋग्वेदः स्वरूपम्, श्रीमहाकालीप्रीत्यर्थे प्रथमचरित्रजपे विनियोगः।

॥ध्यानम्॥

ॐ खड्‌गं चक्रगदेषुचापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः
शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां
यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्‍तुं मधुं कैटभम्॥१॥

ॐ नमश्चण्डिकायै

"ॐ ऐं" मार्कण्डेय उवाच॥१॥

सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः।
निशामय तदुत्पत्तिं विस्तराद् गदतो मम॥२॥ 

महामायानुभावेन यथा मन्वन्‍तराधिपः।
स बभूव महाभागः सावर्णिस्तनयो रवेः॥३॥

स्वारोचिषेऽन्‍तरे पूर्वं चैत्रवंशसमुद्भवः।
सुरथो नाम राजाभूत्समस्ते क्षितिमण्डले॥४॥

तस्य पालयतः सम्यक् प्रजाः पुत्रानिवौरसान्।
बभूवुः शत्रवो भूपाः कोलाविध्वंसिनस्तदा॥५॥

तस्य तैरभवद् युद्धमतिप्रबलदण्डिनः।
न्यूनैरपि स तैर्युद्धे कोलाविध्वंसिभिर्जितः॥६॥

ततः स्वपुरमायातो निजदेशाधिपोऽभवत्।
आक्रान्‍तः स महाभागस्तैस्तदा प्रबलारिभिः॥७॥

अमात्यैर्बलिभिर्दुष्टैर्दुर्बलस्य दुरात्मभिः।
कोशो बलं चापहृतं तत्रापि स्वपुरे ततः॥८॥

ततो मृगयाव्याजेन हृतस्वाम्यः स भूपतिः।
एकाकी हयमारुह्य जगाम गहनं वनम्॥९॥

स तत्राश्रममद्राक्षीद् द्विजवर्यस्य मेधसः।
प्रशान्‍तश्‍वापदाकीर्णं मुनिशिष्योपशोभितम्॥१०॥

तस्थौ कंचित्स कालं च मुनिना तेन सत्कृतः।
इतश्‍चेतश्‍च विचरंस्तस्मिन्मुनिवराश्रमे॥११॥

सोऽचिन्‍तयत्तदा तत्र ममत्वाकृष्टचेतनः।
मत्पूर्वैः पालितं पूर्वं मया हीनं पुरं हि तत्॥१२॥

मद्‌भृत्यैस्तैरसद्‌वृत्तैर्धर्मतः पाल्यते न वा।
न जाने स प्रधानो मे शूरहस्ती सदामदः॥१३॥

मम वैरिवशं यातः कान् भोगानुपलप्स्यते।
ये ममानुगता नित्यं प्रसादधनभोजनैः॥१४॥

अनुवृत्तिं ध्रुवं तेऽद्य कुर्वन्त्यन्यमहीभृताम्।
असम्यग्व्यशीलैस्तैः कुर्वद्भिः सततं व्ययम्॥१५॥

संचितः सोऽतिदुःखेन क्षयं कोशो गमिष्यति।
एतच्चान्यच्च सततं चिन्तयामास पार्थिवः॥१६॥

तत्र विप्राश्रमाभ्याशे वैश्यमेकं ददर्श सः।
स पृष्टस्तेन कस्त्वं भो हेतुश्‍चागमनेऽत्र कः॥१७॥

सशोक इव कस्मात्त्वं दुर्मना इव लक्ष्यसे।
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य भूपतेः प्रणयोदितम्॥१८॥

प्रत्युवाच स तं वैश्यः प्रश्रयावनतो नृपम्॥१९॥

वैश्‍य उवाच॥२०॥

समाधिर्नाम वैश्‍योऽहमुत्पन्नो धनिनां कुले॥२१॥

पुत्रदारैर्निरस्तश्‍च धनलोभादसाधुभिः।
विहीनश्‍च धनैर्दारैः पुत्रैरादाय मे धनम्॥२२॥

वनमभ्यागतो दुःखी निरस्तश्चाप्तबन्धुभिः।
सोऽहं न वेद्मि पुत्राणां कुशलाकुशलात्मिकाम्॥२३॥

प्रवृत्तिं स्वजनानां च दाराणां चात्र संस्थितः।
किं नु तेषां गृहे क्षेममक्षेमं किं नु साम्प्रतम्॥२४॥

कथं ते किं नु सद्‌वृत्ता दुर्वृत्ताः किं नु मे सुताः॥२५॥

राजोवाच॥२६॥

यैर्निरस्तो भवाँल्लुब्धैः पुत्रदारादिभिर्धनैः॥२७॥

तेषु किं भवतः स्नेहमनुबध्नाति मानसम्॥२८॥

वैश्य उवाच॥२९॥

एवमेतद्यथा प्राह भवानस्मद्‌गतं वचः॥३०॥

किं करोमि न बध्नाति मम निष्ठुरतां मनः।
यैः संत्यज्य पितृस्नेहं धनलुब्धैर्निराकृतः॥३१॥

पतिस्वजनहार्दं च हार्दि तेष्वेव मे मनः।
किमेतन्नाभिजानामि जानन्नपि महामते॥३२॥

यत्प्रेमप्रवणं चित्तं विगुणेष्वपि बन्धुषु।
तेषां कृते मे निःश्‍वासो दौर्मनस्यं च जायते॥३३॥

करोमि किं यन्न मनस्तेष्वप्रीतिषु निष्ठुरम्॥३४॥

मार्कण्डेय उवाच॥३५॥

ततस्तौ सहितौ विप्र तं मुनिं समुपस्थितौ॥३६॥

समाधिर्नाम वैश्योऽसौ स च पार्थिवसत्तमः।
कृत्वा तु तौ यथान्यायं यथार्हं तेन संविदम्॥३७॥

उपविष्टौ कथाः काश्चिच्चक्रतुर्वैश्‍यपार्थिवौ॥३८॥

राजोवाच॥३९॥

भगवंस्त्वामहं प्रष्टुमिच्छाम्येकं वदस्व तत्॥४०॥

दुःखाय यन्मे मनसः स्वचित्तायत्ततां विना।
ममत्वं गतराज्यस्य राज्याङ्गेष्वखिलेष्वपि॥४१॥

जानतोऽपि यथाज्ञस्य किमेतन्मुनिसत्तम।

अयं च निकृतः पुत्रैर्दारैर्भृत्यैस्तथोज्झितः॥४२॥

स्वजनेन च संत्यक्तस्तेषु हार्दी तथाप्यति।
एवमेष तथाहं च द्वावप्यत्यन्तदुःखितौ॥४३॥

दृष्टदोषेऽपि विषये ममत्वाकृष्टमानसौ।
तत्किमेतन्महाभाग यन्मोहो ज्ञानिनोरपि॥४४॥

ममास्य च भवत्येषा विवेकान्धस्य मूढता॥४५॥

ऋषिरुवाच॥४६॥

ज्ञानमस्ति समस्तस्य जन्तोर्विषयगोचरे॥४७॥

विषयश्च महाभागयाति चैवं पृथक् पृथक्।
दिवान्धाः प्राणिनः केचिद्रात्रावन्धास्तथापरे॥४८॥

केचिद्दिवा तथा रात्रौ प्राणिनस्तुल्यदृष्टयः।
ज्ञानिनो मनुजाः सत्यं किं तु ते न हि केवलम्॥४९॥

यतो हि ज्ञानिनः सर्वे पशुपक्षिमृगादयः।
ज्ञानं च तन्मनुष्याणां यत्तेषां मृगपक्षिणाम्॥५०॥

मनुष्याणां च यत्तेषां तुल्यमन्यत्तथोभयोः।
ज्ञानेऽपि सति पश्यैतान् पतङ्गाञ्छावचञ्चुषु॥५१॥

कणमोक्षादृतान्मोहात्पीड्यमानानपि क्षुधा।
मानुषा मनुजव्याघ्र साभिलाषाः सुतान् प्रति॥५२॥

लोभात्प्रत्युपकाराय नन्वेतान् किं न पश्‍यसि।
तथापि ममतावर्त्ते मोहगर्ते निपातिताः॥५३॥

महामायाप्रभावेण संसारस्थितिकारिणा।
तन्नात्र विस्मयः कार्यो योगनिद्रा जगत्पतेः॥५४॥

महामाया हरेश्‍चैषा तया सम्मोह्यते जगत्।
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा॥५५॥

बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।
तया विसृज्यते विश्‍वं जगदेतच्चराचरम्॥५६॥

सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये।
सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी॥५७॥

संसारबन्धहेतुश्‍च सैव सर्वेश्‍वरेश्‍वरी॥५८॥

राजोवाच॥५९॥

भगवन् का हि सा देवी महामायेति यां भवान्॥६०॥

ब्रवीति कथमुत्पन्ना सा कर्मास्याश्च किं द्विज।
यत्प्रभावा च सा देवी यत्स्वरूपा यदुद्भवा॥६१॥

तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तो ब्रह्मविदां वर॥६२॥

ऋषिरुवाच॥६३॥

नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तया सर्वमिदं ततम्॥६४॥

तथापि तत्समुत्पत्तिर्बहुधा श्रूयतां मम।
देवानां कार्यसिद्ध्यर्थमाविर्भवति सा यदा॥६५॥

उत्पन्नेति तदा लोके सा नित्याप्यभिधीयते।
योगनिद्रां यदा विष्णुर्जगत्येकार्णवीकृते॥६६॥

आस्तीर्य शेषमभजत्कल्पान्‍ते भगवान् प्रभुः।
तदा द्वावसुरौ घोरौ विख्यातौ मधुकैटभौ॥६७॥

विष्णुकर्णमलोद्भूतो हन्‍तुं ब्रह्माणमुद्यतौ।
स नाभिकमले विष्णोः स्थितो ब्रह्मा प्रजापतिः॥६८॥

दृष्ट्वा तावसुरौ चोग्रौ प्रसुप्तं च जनार्दनम्।
तुष्टाव योगनिद्रां तामेकाग्रहृदयस्थितः॥६९॥

विबोधनार्थाय हरेर्हरिनेत्रकृतालयाम्।
विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्॥७०॥

निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः॥७१॥

ब्रह्मोवाच॥७२॥

त्वं स्वाहा त्वं स्वधां त्वं हि वषट्कारःस्वरात्मिका॥७३॥

सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता।
अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः॥७४॥

त्वमेव संध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा।
त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्॥७५॥

त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्‍ते च सर्वदा।
विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने॥७६॥

तथा संहृतिरूपान्‍ते जगतोऽस्य जगन्मये।
महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः॥७७॥

महामोहा च भवती महादेवी महासुरी।
प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी॥७८॥

कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्‍च दारुणा।
त्वं श्रीस्त्वमीश्‍वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा॥७९॥

लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च।
खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा॥८०॥

शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा।
सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी॥८१॥

परापराणां परमा त्वमेव परमेश्‍वरी।
यच्च किंचित्क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके॥८२॥

तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे तदा।
यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत्॥८३॥

सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्‍वरः।
विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च॥८४॥

कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत्।
सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता॥८५॥

मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ।
प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु॥८६॥

बोधश्‍च क्रियतामस्य हन्‍तुमेतौ महासुरौ॥८७॥

ऋषिरुवाच॥८८॥

एवं स्तुता तदा देवी तामसी तत्र वेधसा॥८९॥

विष्णोः प्रबोधनार्थाय निहन्तुं मधुकैटभौ।
नेत्रास्यनासिकाबाहुहृदयेभ्यस्तथोरसः॥९०॥

निर्गम्य दर्शने तस्थौ ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः।
उत्तस्थौ च जगन्नाथस्तया मुक्तो जनार्दनः॥९१॥

एकार्णवेऽहिशयनात्ततः स ददृशे च तौ।
मधुकैटभो दुरात्मानावतिवीर्यपराक्रमौ॥९२॥

क्रोधरक्‍तेक्षणावत्तुं ब्रह्माणं जनितोद्यमौ।
समुत्थाय ततस्ताभ्यां युयुधे भगवान् हरिः॥९३॥

पञ्चवर्षसहस्राणि बाहुप्रहरणो विभुः।
तावप्यतिबलोन्मत्तौ महामायाविमोहितौ॥९४॥

उक्तवन्तौ वरोऽस्मत्तो व्रियतामिति केशवम्॥९५॥

श्रीभगवानुवाच॥९६॥

भवेतामद्य मे तुष्टौ मम वध्यावुभावपि॥९७॥

किमन्येन वरेणात्र एतावद्धि वृतं मम॥९८॥

ऋषिरुवाच॥९९॥

वञ्चिताभ्यामिति तदा सर्वमापोमयं जगत्॥१००॥

विलोक्य ताभ्यां गदितो भगवान् कमलेक्षणः।
आवां जहि न यत्रोर्वी सलिलेन परिप्लुता॥१०१॥

ऋषिरुवाच॥१०२॥

तथेत्युक्त्वा भगवता शङ्खचक्रगदाभृता।
कृत्वा चक्रेण वै च्छिन्ने जघने शिरसी तयोः॥१०३॥

एवमेषा समुत्पन्ना ब्रह्मणा संस्तुता स्वयम्।
प्रभावमस्या देव्यास्तु भूयः श्रृणु वदामि ते॥ ऐं ॐ॥१०४॥

॥ श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये मधुकैटभवधो नाम प्रथमोऽध्यायः सम्पूर्णं ॥


॥ श्रीदुर्गायै नमः ॥

पहला अध्याय - श्री दुर्गा सप्तशती

मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधि को भगवती की महिमा बताते हुए मधु कैटभ  वध का प्रसङ्ग सुनाना

विनियोग

ॐ प्रथम चरित्र के ब्रह्मा ऋषि, महाकाली देवता, गायत्री छन्द, नन्दा शक्ति, रक्तदन्तिका बीज, अग्नि तत्त्व और ऋग्वेद स्वरूप है। श्री महाकाली देवता की प्रसन्नता के लिये प्रथम चरित्र के जप में विनियोग किया जाता है।

ध्यान

भगवान् विष्णु के सो जाने पर मधु और कैटभ को मारने के लिये कमल जन्मा ब्रह्मा जी ने जिनका स्तवन किया था, उन महाकाली देवी का मैं सेवन करता ( करती ) हूँ। वे अपने दस हाथों में खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशुण्डि, मस्तक और शङ्ख धारण करती हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वे समस्त अङ्गों में दिव्य आभूषणों से विभूषित हैं। उनके शरीर की कान्ति नीलमणि के समान है तथा वे दस मुख और दस पैरों से युक्त हैं।

ॐ चण्डी देवी को नमस्कार है ।

मार्कण्डेयजी बोले–॥ १ ॥ सूर्य के पुत्र सावर्णि जो आठवें मनु कहे जाते हैं, उनकी उत्पत्ति की कथा विस्तारपूर्वक कहता हूँ, सुनो ॥ २ ॥ सूर्यकुमार महाभाग सावर्णि भगवती महामाया के अनुग्रह से जिस प्रकार मन्वन्तर के स्वामी हुए, वही प्रसङ्ग सुनाता हूँ ॥ ३ ॥ पूर्वकाल की बात है, स्वारोचिष मन्वन्तर में सुरथ नामके एक राजा थे, जो चैत्रवंश में उत्पन्न हुए थे। उनका समस्त भू मण्डल पर अधिकार था ॥ ४ ॥ वे प्रजा का अपने औरस पुत्रों की भाँति धर्म पूर्वक पालन करते थे; तो भी उस समय कोलाविध्वंसी नाम के क्षत्रिय उनके शत्रु हो गये ॥ ५ ॥ राजा सुरथ की दण्डनीति बड़ी प्रबल थी। उनका शत्रुओं के साथ संग्राम हुआ। यद्यपि कोलाविध्वंसी संख्या में कम थे तो भी राजा सुरथ युद्ध में उनसे परास्त हो गये ॥ ६ ॥ तब वे युद्ध भूमि से अपने नगर को लौट आये और केवल अपने देश के राजा होकर रहने लगे ( समूची पृथ्वी से अब उनका अधिकार जाता रहा ), किंतु वहाँ भी उन प्रबल शत्रुओं ने उस समय महाभाग राजा सुरथ पर आक्रमण कर दिया ॥ ७ ॥

राजा का बल क्षीण हो चला था; इसलिये उनके दुष्ट, बलवान् एवं दुरात्मा मन्त्रियों ने वहाँ उनकी राजधानी में भी राजकीय सेना और खजाने को हथिया लिया ॥८॥ सुरथ का प्रभुत्व नष्ट हो चुका था, इसलिये वे शिकार खेलने के बहाने घोड़े पर सवार हो वहाँ से अकेले ही एक घने जंगल में चले गये ॥ ९ ॥ वहाँ उन्होंने विप्रवर मेधा मुनिका आश्रम देखा, जहाँ कितने ही हिंसक जीव [ अपनी स्वाभाविक हिंसावृत्ति छोड़कर ] परम शान्त भाव से रहते थे। मुनि के बहुत से शिष्य उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे ॥ १० ॥ वहाँ जाने पर मुनि ने उनका सत्कार किया और वे उन मुनि श्रेष्ठ के आश्रम पर इधर-उधर विचरते हुए कुछ काल तक रहे ॥११॥ फिर ममता से आकृष्ट चित्त होकर वहाँ इस प्रकार चिन्ता करने लगे – 'पूर्वकाल में मेरे पूर्वजों ने जिसका पालन किया था, वही नगर आज मुझसे रहित है। पता नहीं, मेरे दुराचारी भृत्य गण उसकी धर्मपूर्वक रक्षा करते हैं या नहीं। जो सदा मद की वर्षा करने वाला और शूरवीर था, वह मेरा प्रधान हाथी अब शत्रुओं के अधीन होकर न जाने किन भोगों को भोगता होगा ? जो लोग मेरी कृपा, धन और भोजन पाने से सदा मेरे पीछे-पीछे चलते थे, वे निश्चय ही अब दूसरे राजाओं का अनुसरण करते होंगे। उन अपव्ययी लोगों के द्वारा सदा खर्च होते रहने के कारण अत्यन्त कष्ट से जमा किया हुआ मेरा वह खजाना खाली हो जायगा ।' ये तथा और भी कई बातें राजा सुरथ निरन्तर सोचते रहते थे। एक दिन उन्होंने वहाँ विप्र वर मेधा के आश्रम के निकट एक वैश्य को देखा और उससे पूछा – 'भाई तुम कौन हो ? यहाँ तुम्हारे आनेका क्या कारण है ? तुम क्यों शोक ग्रस्त और अनमने-से दिखायी देते हो ?' राजा सुरथ का यह प्रेमपूर्वक कहा हुआ वचन सुनकर वैश्य ने विनीत भाव से उन्हें प्रणाम करके कहा – ॥ १२ – १९॥

वैश्य बोला – ॥ २० ॥ राजन् ! मैं धनियों के कुलमें उत्पन्न एक वैश्य हूँ। मेरा नाम समाधि है ॥ २१ ॥ मेरे दुष्ट स्त्री-पुत्रों ने धन के लोभ से मुझे घर से बाहर निकाल दिया है। मैं इस समय धन, स्त्री और पुत्रों से वञ्चित हूँ। मेरे विश्वसनीय बन्धुओं ने मेरा ही धन लेकर मुझे दूर कर दिया है, इसलिये दुःखी होकर मैं वन में चला आया हूँ। यहाँ रहकर मैं इस बात को नहीं जानता कि मेरे पुत्रों की, स्त्री की और स्वजनों की कुशल है या नहीं। इस समय घर में वे कुशल से रहते हैं अथवा उन्हें कोई कष्ट है ? ॥ २२ – २४ ॥ वे मेरे पुत्र कैसे हैं ? क्या वे सदाचारी हैं अथवा दुराचारी हो गये हैं ? ॥ २५ ॥ राजाने पूछा- ॥ २६ ॥ जिन लोभी स्त्री पुत्र आदि ने धन के - कारण तुम्हें घर से निकाल दिया, उनके प्रति तुम्हारे चित्त में इतना स्नेह का बन्धन क्यों है ॥ २७-२८ ॥

वैश्य बोला – ॥ २९ ॥ आप मेरे विषय में जैसी बात कहते हैं, वह सब ठीक है ॥ ३० ॥ किंतु क्या करूँ, मेरा मन निष्ठुरता नहीं धारण करता। जिन्होंने धन के लोभ में पड़कर पिता के प्रति स्नेह, पति के प्रति प्रेम तथा आत्मीय जन के प्रति अनुराग को तिलाञ्जलि दे मुझे घर से निकाल दिया है, उन्हीं के प्रति मेरे हृदय में इतना स्नेह है। महामते ! गुणहीन बन्धुओं के प्रति भी जो मेरा चित्त इस प्रकार प्रेम मग्न हो रहा है, यह क्या है – इस बात को मैं जानकर भी नहीं जान पाता। उनके लिये मैं लंबी साँसें ले रहा हूँ और मेरा हृदय अत्यन्त दुःखित हो रहा है ॥ ३१ – ३३ ॥ उन लोगों में प्रेम का सर्वथा अभाव है; तो भी उनके प्रति जो मेरा मन निष्ठुर नहीं हो पाता, इसके लिये क्या करूँ ? ॥ ३४ ॥

मार्कण्डेय जी कहते हैं — ॥ ३५ ॥ ब्रह्मन्! तदनन्तर राजाओं में श्रेष्ठ सुरथ और वह समाधि नामक वैश्य दोनों साथ-साथ मेधा मुनि की सेवा में उपस्थित हुए और उनके साथ यथा योग्य न्यायानुकूल विनयपूर्ण बर्ताव करके बैठे। तत्पश्चात् वैश्य और राजा ने कुछ वार्तालाप आरम्भ किया ॥ ३६ – ३८ ॥

राजा ने कहा - ॥ ३९ ॥ भगवन् ! मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, उसे बताइये ॥ ४० ॥ मेरा चित्त अपने अधीन न होने के कारण वह बात मेरे मन को बहुत दुःख देती है। जो राज्य मेरे हाथ से चला गया है, उसमें और उसके सम्पूर्ण अङ्गों में मेरी ममता बनी हुई है ॥ ४१ ॥ मुनिश्रेष्ठ ! यह जानते हुए भी कि वह अब मेरा नहीं है, अज्ञानी की भाँति मुझे उसके लिये दुःख होता है; यह क्या है ? इधर यह वैश्य भी घर से अपमानित होकर आया है । इसके पुत्र, स्त्री और भृत्यों ने इसे छोड़ दिया है ॥ ४२ ॥ स्वजनों ने भी इसका परित्याग कर दिया है तो भी यह उनके प्रति अत्यन्त हार्दिक स्नेह रखता है। इस प्रकार यह तथा मैं दोनों ही बहुत दुःखी हैं ॥ ४३ ॥ जिसमें प्रत्यक्ष दोष देखा गया है, उस विषय के लिये भी हमारे मन में ममताजनित आकर्षण पैदा हो रहा है। महाभाग ! हम दोनों समझदार हैं; तो भी हममें जो मोह पैदा हुआ है, यह क्या है ? विवेक शून्य पुरुष की भाँति मुझमें और इसमें भी यह मूढ़ता प्रत्यक्ष दिखायी देती है ॥ ४४-४५ ॥

ऋषि बोले - ॥ ४६ ॥ महाभाग ! विषय मार्ग का ज्ञान सब जीवों को है ॥ ४७ ॥ इसी प्रकार विषय भी सबके लिये अलग अलग हैं, कुछ प्राणी दिन में नहीं देखते और दूसरे रात में ही नहीं देखते ॥ ४८ ॥ तथा कुछ जीव ऐसे हैं, जो दिन और रात्रि में भी बराबर ही देखते हैं। यह ठीक है कि मनुष्य समझदार होते हैं; किंतु केवल वे ही ऐसे नहीं होते ॥ ४९ ॥ पशु, पक्षी और मृग आदि सभी प्राणी समझदार होते हैं। मनुष्यों की समझ भी वैसी ही होती है, जैसी उन मृग और पक्षियों की होती है ॥ ५० ॥ तथा जैसी मनुष्योंकी होती है, वैसी ही उन मृग पक्षी आदि की होती है। यह तथा अन्य बातें भी प्रायः दोनों में समान ही हैं। समझ होने पर भी इन पक्षियों को तो देखो, ये स्वयं भूख से पीड़ित होते हुए भी मोह वश बच्चों की चोंच में कितने चाव से अन्न के दाने डाल रहे हैं! नरश्रेष्ठ! क्या तुम नहीं देखते कि ये मनुष्य समझदार होते हुए भी लोभ वश अपने किये हुए उपकार का बदला पाने के लिये पुत्रों की अभिलाषा करते हैं? यद्यपि उन सब में समझ की कमी नहीं है, तथापि वे संसार की स्थिति (जन्म-मरणकी परम्परा ) बनाये रखने वाले भगवती महामाया के प्रभाव द्वारा ममतामय भँवरसे युक्त मोह के गहरे गर्त में गिराये गये हैं। इसलिये इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये । जगदीश्वर भगवान् विष्णु की योग निद्रारूपा जो भगवती महामाया हैं, उन्हीं से यह जगत् मोहित हो रहा है। वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्तको बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं। वे ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत की  सृष्टि करती हैं तथा वे ही प्रसन्न होने पर मनुष्यों को मुक्ति के लिये वरदान देती हैं। वे ही परा विद्या संसार - बन्धन और मोक्ष की हेतुभूता सनातनी देवी तथा सम्पूर्ण ईश्वरों की भी अधीश्वरी हैं ॥ ५१ – ५८ ॥

राजा ने पूछा – ॥ ५९॥ भगवन् ! जिन्हें आप महामाया कहते हैं, वे देवी कौन हैं ? ब्रह्मन् ! उनका आविर्भाव कैसे हुआ ? तथा उनके चरित्र कौन-कौन हैं ? ब्रह्म वेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे! उन देवी का जैसा प्रभाव हो, जैसा स्वरूप हो और जिस प्रकार प्रादुर्भाव हुआ हो, वह सब मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ ॥ ६०–६२॥

ऋषि बोले – ॥६३॥ राजन् ! वास्तव में तो वे देवी नित्यस्वरूपा ही हैं।  सम्पूर्ण जगत् उन्हीं का रूप है तथा उन्होंने समस्त विश्व को व्याप्त कर रखा है, तथापि उनका प्राकट्य अनेक प्रकार से होता है। वह मुझसे सुनो। यद्यपि वे नित्य और अजन्मा हैं, तथापि जब देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये प्रकट होती हैं, उस समय लोक में उत्पन्न हुई कहलाती हैं । कल्प के अन्त में जब सम्पूर्ण जगत् एकार्णव में निमग्न हो रहा था और सबके प्रभु भगवान् विष्णु शेषनाग की शय्या बिछाकर योग निद्रा का आश्रय ले सो रहे थे, उस समय उनके कानों के मैल से दो भयंकर असुर उत्पन्न हुए, जो मधु और कैटभ के नाम से विख्यात थे। वे दोनों ब्रह्माजी का वध करने को तैयार हो गये। भगवान् विष्णु के नाभि कमल में विराजमान प्रजापति ब्रह्माजी ने जब उन दोनों भयानक असुरों को अपने पास आया और भगवान्‌ को सोया हुआ देखा, तब एकाग्रचित्त होकर उन्होंने भगवान् विष्णु को जगाने के लिये उनके नेत्रों में निवास करने वाली योगनिद्रा का स्तवन आरम्भ किया। जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत् को धारण करने वाली, संसार का पालन और संहार करने वाली तथा तेज: स्वरूप भगवान् विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रा देवी की भगवान् ब्रह्मा स्तुति करने लगे ॥ ६४–७१॥ 

ब्रह्माजी ने कहा – ॥ ७२ ॥ देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा और तुम्हीं वषट्कार हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम्हीं जीवन दायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार – इन तीन मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो। तथा इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त जो विन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है। जिसका विशेष रूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं हो। देवि! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो। देवि! तुम्हीं इस विश्व - ब्रह्माण्ड को धारण करती हो। तुमसे ही इस जगत् की सृष्टि होती है। तुम्हीं से इसका पालन होता है और सदा तुम्हीं कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो। जगन्मयी देवि! इस जगत् की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालन-काल में स्थिति रूपा हो तथा कल्पान्त के समय संहार रूप धारण करने वाली हो। तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो। तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो। भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्री और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो। लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो। तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शङ्ख और धनुष धारण करनेवाली हो। बाण, भुशुण्डी और परिघ - ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं । तुम सौम्य और सौम्यतर हो – इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो। पर और अपर – सबसे परे रहनेवाली परमेश्वरी तुम्हीं हो। 

सर्वस्वरूपे देवि! कहीं भी सत्असत्रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो। ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है ? जो इस जगत्‌ की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान् को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है ? मुझको, भगवान् शङ्कर को तथा भगवान् विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है; अतः तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है ? देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो। ये जो दोनों दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इनको मोह में डाल दो और जगदीश्वर भगवान् विष्णु को शीघ्र ही जगा दो। साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान् असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो ॥ ७३–८७ ॥

ऋषि कहते हैं— ॥८८ ॥ राजन् ! जब ब्रह्मा जी ने वहाँ मधु और कैटभ को मारने के उद्देश्य से भगवान् विष्णु को जगाने के लिये तमोगुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा की इस प्रकार स्तुति की, तब वे भगवान्‌ के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय और वक्षःस्थल से निकलकर अव्यक्त जन्मा ब्रह्माजी की दृष्टि के समक्ष खड़ी हो गयीं। योगनिद्रा से मुक्त होने पर जगत् के स्वामी भगवान् जनार्दन उस एकार्णव के जल में शेषनाग की शय्या से जाग उठे। फिर उन्होंने उन दोनों असुरों को देखा। वे दुरात्मा मधु और कैटभ अत्यन्त बलवान् तथा पराक्रमी थे और क्रोध से लाल आँखें किये ब्रह्माजी को खा जाने के लिये उद्योग कर रहे थे।

तब भगवान् श्रीहरि ने उठकर उन दोनों के साथ पाँच हजार वर्षां तक केवल बाहु युद्ध किया। वे दोनों भी अत्यन्त बल के कारण उन्मत्त हो रहे थे। इधर महामाया ने भी उन्हें मोहमें डाल रखा था; इसलिये वे भगवान् विष्णु से कहने लगे 'हम तुम्हारी वीरता से संतुष्ट हैं। तुम हम लोगों से कोई वर माँगो' ॥ ८९ – ९५॥ -

श्री भगवान् बोले— ॥ ९६ ॥ यदि तुम दोनों मुझ पर प्रसन्न हो तो अब मेरे हाथ से मारे जाओ। बस, इतना - सा ही मैंने वर माँगा है। यहाँ दूसरे किसी वर से क्या लेना है ।। ९७ - ९८॥

ऋषि कहते हैं — ॥ ९९ ॥ इस प्रकार धोखे में आ जाने पर जब उन्होंने सम्पूर्ण जगत्‌ में जल-ही-जल देखा, तब कमल नयन भगवान से कहा –‘जहाँ पृथ्वी जल में डूबी हुई न हो – जहाँ सूखा स्थान हो, वहीं हमारा वध करो ॥ १००-१०१ ।।

ऋषि कहते हैं — ॥ १०२ ॥ तब 'तथास्तु' कहकर शङ्ख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान् ने उन दोनों के मस्तक अपनी जाँघ पर रखकर चक्र से काट डाले। इस प्रकार ये देवी महामाया ब्रह्माजी की स्तुति करने पर स्वयं प्रकट हुई थीं। अब पुनः तुमसे उनके प्रभाव का वर्णन करता हूँ, सुनो ॥ १०३-१०४॥

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवी माहात्म्य में मधु कैटभ-वध' नामक पहला अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥

रक्षा बंधन 2023 बुधवार, 30 अगस्त

 रक्षाबन्धन भारतीय धर्म संस्कृति के अनुसार रक्षाबन्धन[ का त्योहार श्रावण माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह त्योहार भाई-बहन को स्नेह की डो...